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हरिशंकर व्यास
हम आस्थावान हिंदुओं का ऐतिहासिक समय है। इसलिए क्योंकी आज अयोध्या, मंदिर, गर्भगृह और मूर्ति का हिंदू मन-मष्तिष्क में अमिट छापा होगा। तभी हमें आंख-नाक-कान बंद कर, शांत मन अपने अंतस में राम और स्वंय को खोजना चाहिए। भूल जाएं इन छोटी-क्षणिक बातों को कि रामजी का किसने टेकओवर किया है?और धर्म-शास्त्र व मर्यादा विरोधी क्या-क्या हो रहा है? इसलिए भी इस सबसे इतर आस्था-धर्म ही हमारी जीवन पद्धति के अंतस का केंद्र है। अस्तित्व की धुरी है। इतिहास का अनुभव है और मानव सभ्यता में हमारा वैशिष्टय है। यह दुर्भाग्य है जो राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा की घड़ी में भी हम सनातनी बंटे हुए हैं। इस घड़ी भी कौम में परस्पर वह दुराव है, जिसका साक्ष्य पंद्रह सौ वर्षों का इतिहास है। जिसकी वजह से अयोध्या बार-बार मंदिर के विध्वंस, संघर्ष और पुनर्निर्माण का गवाह हुआ। सचमुच अयोध्या हो, काशी हो या मथुरा, सोमनाथ या असंख्य आस्था केंद्रों का पूरा इतिहास इस सच्चाई का प्रतिनिधि है कि हम सनातनी लोग पृथ्वीराजों बनाम जयचंदों के विद्वेष, दुर्भावनाओं, घृणा, शत्रुताओं के भस्मासुरों की नियति लिए हुए हैं!

जबकि धर्म में यह सीख नहीं है। ईमानदारी से अपने मन मष्तिष्क में राम का ध्यान कर, राम की छवि को अपने अंतस में जरा बूझें कि मूर्ति से क्या है? जवाब होगा- मर्यादा पुरूष श्री राम! और यही सत्य अपने धर्म का पर्याय है। सनातन (हिंदू) धर्म और राम कोई प्रोपेगेंडा नहीं है, दिखावा नहीं है, बल्कि जीवन पद्धति है,जीवनदर्शन हैं। स्वयं द्वारा स्वयं की खोज हैं। मर्यादित मगरएक पुरुषार्थी जीवन पद्धति। उस नाते सनातन धर्म की यह व्याख्या सटीक है कि हमारा धर्म, ज्ञान और आचरण की खिडक़ी खोलता है। वह पशुता से मानवता की ओर ले जाता है। उसे चैतन्य प्राणी, स्वतंत्रताबोधी और आजाद बनाता है। यह वह पद्धति, वह चिकित्सा है जो मनुष्य को आधि, व्याधि, उपाधि से मुक्त कर सार्थक जीवन का अनुभव कराती है। सनातन धर्म वह है, जिससे अभ्युदय और नि:श्रेयस की सिद्धि है। और मनुष्य बतौर एक विवेकशील प्राणी लक्ष्यों की प्राप्ति में पुरुषार्थरत रहता है। विषयांतर हो गया है और मैं गपशप की जगह फसलफे में खो रहा हूं।

असल बात हर सनातनी प्राण प्रतिष्ठा की सिद्धि का यजमान बनें। और मन ही मन संकल्प धारे कि श्रीराम उनका जीवन दर्शन हैं। इसलिए मंदिर और मूर्ति दिखावे, प्रोपेगेंडा, प्रचार और अहंकार का प्रदर्शन नहीं है, बल्कि धर्म, ज्ञान और आचरण की मर्यादाओं में जीवन की सत्यता, पवित्रता और पुरुषार्थ का प्रारब्ध है। यह लौकिक उन्नति की वह कुंजी है जिससे’नि:श्रेयस’ याकि पारलौकिक पुण्यता और कल्याण का बोध भी है।

हां, बतौर धर्म, नस्ल, कौम और देश यह भाव बनना चाहिए, यह फील होना चाहिए कि गहरे घावों, लंबी पीड़ा और संघर्ष के बाद मर्यादा पुरूष श्री राम का मंदिर बना है तो हम अब सच्चे आराधक बनें। हममें वह समझ बने कि रामराज्य बनना राम की पुण्यताओं, मर्यादाओं, सत्य और समावेशी आचरण से था न कि रावण जैसे अभिमानों, झूठे हुंकारों, दिखावे और मूर्खताओं के भस्मासुरी व्यवहार से!

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