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हल्द्वानी। उत्तराखण्ड मुक्त विश्वविद्यालय, हल्द्वानी; उत्तराखण्ड भाषा संस्थान, देहरादून एवं केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा के संयुक्त तत्वावधान में “हिमालय के लोकवृत्त में उत्तराखण्ड का भाषा परिवार” विषयक द्वि-दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का शुभारंभ विश्वविद्यालय परिसर में हुआ। संगोष्ठी की शुरुआत पुस्तक मेले के उद्घाटन से हुई, जिसका उद्घाटन प्रसिद्ध भाषाविद् प्रो. वी. आर. जगन्नाथन ने किया। इस अवसर पर कुलपति प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी, प्रो. जगत सिंह बिष्ट (पूर्व कुलपति, एस.एस.जे. विश्वविद्यालय, अल्मोड़ा), प्रो. देव सिंह पोखरिया (वरिष्ठ कुमाऊनी साहित्यकार) तथा प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव (हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार) उपस्थित रहे।

संगीत विभाग द्वारा प्रस्तुत समूहगान “उत्तराखण्ड मेरी मातृभूमि” ने कार्यक्रम को सांस्कृतिक गरिमा प्रदान की।
प्रो. गिरिजा प्रसाद पांडे ने स्वागत वक्तव्य देते हुए उत्तराखण्ड की भाषाई विविधता एवं लुप्त होती भाषाओं के संरक्षण पर बल दिया।
समारोह संयोजक डॉ. शशांक शुक्ल ने विषय-प्रवर्तन में कहा कि बोली और भाषा के कृत्रिम भेद को समाप्त करने का समय आ गया है।

प्रो. वी. आर. जगन्नाथन ने अपने बीज वक्तव्य में कहा कि “हिंदी की विविध बोलियाँ उसकी जीवंतता का प्रमाण हैं; क्षेत्रीय भाषाओं के पारस्परिक संवाद से राष्ट्रीय एकता और भाषाई विकास सुदृढ़ होंगे।”
प्रो. जितेन्द्र श्रीवास्तव ने कहा कि “भारत की भाषाएँ जोड़ती हैं, काटती नहीं; हिंदी को किसी क्षेत्र की नहीं, बल्कि राष्ट्र की भाषा के रूप में देखा जाना चाहिए।”
प्रो. लक्ष्मण सिंह बिष्ट ने भाषाई विवादों से ऊपर उठकर रचनात्मकता और साहित्यिक समरसता पर बल दिया।
प्रो. जगत सिंह बिष्ट ने कहा कि “हिमालय का लोकवृत्त भाषाई रूप से अत्यंत विस्तृत है; उत्तराखण्ड की 14 प्रमुख एवं जनजातीय भाषाओं के संरक्षण की आवश्यकता है।

मुख्य अतिथि गजराज सिंह बिष्ट (महापौर, हल्द्वानी) ने अंग्रेजी भाषा के प्रभुत्व और उसके सांस्कृतिक प्रभाव पर चर्चा की।
म प्रो. सुनील कुलकर्णी (निदेशक, केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा) ने वर्चुअल संबोधन में घटती भाषाओं के संरक्षण हेतु नीतिगत प्रयासों की आवश्यकता बताई।

इस अवसर पर प्रकाश चन्द्र तिवारी की कहानी-संग्रह “किरायेदार” का लोकार्पण भी किया गया। अध्यक्षीय उद्बोधन में कुलपति प्रो. नवीन चन्द्र लोहनी ने कहा कि “क्षेत्रीय भाषाएँ हमारी सांस्कृतिक अस्मिता की आत्मा हैं। शिक्षा के माध्यम से भाषाओं को जनसामान्य तक पहुँचाना हमारी जिम्मेदारी है।”
सत्र का संचालन डॉ. अनिल कार्की ने किया एवं धन्यवाद ज्ञापन डॉ. राजेन्द्र कैड़ा ने प्रस्तुत किया।
समानांतर सत्रों में प्रो. प्रभा पंत, प्रो. चन्द्रकला रावत, प्रो. देव सिंह पोखरिया, डॉ. नंद किशोर हटवाल, गणेश खुगशाल ‘गणि’, रमाकांत बैंजवाल, मुकेश नौटियाल आदि वक्ताओं ने भाग लिया।
इन सत्रों में कुमाऊँनी, गढ़वाली, दनपुरिया, रं, राजी, थारू, जौनसारी, बुक्सा, बाँगाणी, रंवाल्टी आदि भाषाओं के संरक्षण, डिजिटल दस्तावेजीकरण और पीढ़ीगत हस्तांतरण पर गहन चर्चा हुई।

कार्यक्रम में प्रदेशभर के भाषाविद्, साहित्यकार, शोधार्थी एवं विश्वविद्यालय परिवार के सदस्य उपस्थित रहे।

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